रचनाकारों के साथ चाय की चुस्की: हरिशंकर परसाई
SIPPING TEA WITH CREATORS
Chaifry
7/27/20251 min read
चाय की प्याली से उठती भाप, उसकी सोंधी गर्माहट, और वह तीखी कड़वाहट, जो ज़ुबान को चुभती है, फिर धीरे-धीरे मिठास में ढलकर दिल को सुकून बख़्शती है—यही तो हरिशंकर परसाई का व्यंग्य है! जैसे चाय का पहला घूँट समाज के कटु सत्य को गले से उतारता है, वैसे ही परसाई की लेखनी पाखंड, भ्रष्टाचार, और खोखली नैतिकता के परदों को हँसते-हँसते चाक-चौबंद कर देती है। और अंत में? वह मानवता की मिठास और सुधार की उम्मीद का स्वाद छोड़ जाती है, जो दिल को गर्म कर देता है, जैसे चाय की आख़िरी चुस्की।
परसाई की रचनाएँ ऐसी मसालेदार चाय हैं, जो पहले समाज के कड़वे सच को ज़ुबान पर लाती हैं, फिर उसमें हास्य की मिर्च,


व्यंग्य का ज़बरदस्त तड़का, और बदलाव की मधुर आशा घोल देती हैं। उनकी कलम कोई साधारण लेखनी नहीं; यह एक तेज़ धार वाला खंजर है, जो सामाजिक ढोंग, सत्ता की बेईमानी, और नैतिकता के खोखले दावों को चीरकर रख देता है। उनकी रचनाएँ हँसाते-हँसाते आँखें नम कर देती हैं, ज़हन को झकझोरती हैं, और समाज में बदलाव की चिंगारी सुलगाती हैं। आज, जब हमारा समाज भ्रष्टाचार की आग में झुलस रहा है, साम्प्रदायिकता की ठंडी हवाएँ हमें ठिठुरा रही हैं, और नैतिकता के कपड़े तार-तार हो रहे हैं, परसाई को पढ़ना एक ऐसी दवा है, जो मनोरंजन के साथ-साथ आत्म-चिंतन का मरहम लगाती है। उनकी लेखनी न केवल साहित्य है, बल्कि एक सामाजिक क्रांति का आह्वान है, जो हमें हँसते हुए सच को गले लगाने और गलत को ठेंगा दिखाने की हिम्मत देती है।
चाय की इस चुस्की के साथ, आइए परसाई की मसालेदार दुनिया में कदम रखें—उनकी तीखी लेखनी, चटपटी भाषा-शैली, ज़िंदादिल संवादों, और समाज की समस्याओं के नंगे चित्रण के ज़रिए। हम उनकी रचनाओं के विश्व कल्याण और नागरिक उत्थान पर प्रभाव को आज के डिजिटल युग में तलाशेंगे, उनकी चार प्रमुख पुस्तकों—विकलांग श्रद्धा का दौर, सदाचार का तावीज़, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, और पगडंडियों का जमाना—के रसीले उदाहरणों के साथ। हम यह भी देखेंगे कि आज का पाठक, जो सोशल मीडिया की चकाचौंध और समाज की उलझनों में फँसा है, परसाई से क्या सीख सकता है, और उनकी रचनाएँ आज भी क्यों दिलों में धमक पैदा करती हैं।
हरिशंकर परसाई: व्यंग्य का जादूगर, समाज का शल्यचिकित्सक (1922-1995)
22 अगस्त 1922 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले के छोटे से गाँव जमानी में जन्मे हरिशंकर परसाई हिंदी साहित्य के पहले ऐसे व्यंग्यकार थे, जिन्होंने व्यंग्य को हँसी-मज़ाक से निकालकर सामाजिक सुधार का हथियार बनाया। 10 अगस्त 1995 को जबलपुर में उनकी विदाई हुई, लेकिन उनकी लेखनी आज भी हमारे बीच साँस लेती है। परसाई ने सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की नब्ज़ पकड़ी और अपने तीखे व्यंग्य से उसकी कमियों को बेनकाब किया। भ्रष्टाचार, पाखंड, और सामाजिक असमानता पर उनकी टिप्पणियाँ ऐसी थीं, जैसे कोई सर्जन समाज के ज़ख्मों की सटीक चीर-फाड़ कर रहा हो। उनकी रचनाएँ—कहानी संग्रह, उपन्यास, व्यंग्य-निबंध, और साक्षात्कार—हिंदी साहित्य की ऐसी धरोहर हैं, जो हर युग में प्रासंगिक रहेंगी।
परसाई ने व्यंग्य को एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित किया। उनकी लेखनी में हास्य का ऐसा जादू था, जो पाठकों को हँसाते-हँसाते उनकी आँखें खोल देता था। वे कहते थे, “मैं व्यंग्य इसलिए लिखता हूँ, क्योंकि सच को और कोई रास्ता नहीं मिलता।” उनकी रचनाओं में आम आदमी की पीड़ा, समाज का ढोंग, और सत्ता की बेईमानी को इतनी बेबाकी से उजागर किया गया कि वे हर पाठक के दिल में उतर गए। चाहे वह गाँव का अनपढ़ किसान हो या शहर का पढ़ा-लिखा नौजवान, परसाई की भाषा और शैली हर किसी को अपनेपन का अहसास कराती थी।
लेखनी, भाषा-शैली, और संवाद: परसाई का मसालेदार मिश्रण
लेखनी: तीखा तीर, मखमली कवर
परसाई की लेखनी एक तीखा तीर थी, जो समाज के पाखंड और भ्रष्टाचार के निशाने पर सटीक लगता था, लेकिन उसका कवर इतना मखमली था कि वह पाठकों को चुभता नहीं, बल्कि लुभाता था। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों—धार्मिक ढोंग, भ्रष्टाचार, और नैतिक पतन—को हास्य और विडंबना के ज़रिए उजागर किया। उनकी रचनाएँ, जैसे विकलांग श्रद्धा का दौर और सदाचार का तावीज़, समाज के खोखले ढाँचों को ध्वस्त करती हैं। परसाई की लेखनी में सुधारवादी भावना थी, जो पाठकों को न केवल समस्याओं से रूबरू कराती थी, बल्कि उन्हें बदलाव की प्रेरणा भी देती थी। उनकी रचनाएँ एक तरह का ‘कैथार्सिस’ थीं—हँसते-हँसाते समाज के ज़ख्मों को साफ करने का ज़रिया।
भाषा-शैली: गली-मोहल्ले की ज़ुबान, साहित्य का रंग
परसाई की भाषा-शैली उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। उनकी भाषा इतनी सरल और सहज थी कि वह गली-मोहल्ले की चाय की दुकान से लेकर साहित्यिक मंचों तक हर जगह फिट बैठती थी। उनके वाक्य छोटे, चुटीले, और तीखे थे, जैसे मिर्च के तड़के वाले पकौड़े। उदाहरण के लिए, ठिठुरता हुआ गणतंत्र में वे लिखते हैं, “हमारा गणतंत्र ठिठुर रहा है, क्योंकि उसे गर्मी देने वाले वादों की आग बुझ चुकी है।” उनकी भाषा में हिंदी की मिठास, लोकजीवन का अपनापन, और व्यंग्य का तीखापन था। पाठक उनकी रचनाओं को पढ़कर ऐसा महसूस करते थे जैसे कोई दोस्त उनके सामने बैठकर समाज की खामियों पर चटपटी बातें कर रहा हो। उनकी शैली में हास्य, तंज, और संवेदना का ऐसा मिश्रण था, जो हर उम्र और वर्ग के पाठकों को लुभाता था।
संवाद: समाज की धड़कन, पात्रों की चीख
परसाई के संवाद उनकी रचनाओं की जान हैं। उनके पात्र—चाहे वह भ्रष्ट बाबू हो, पाखंडी पंडित, या लाचार आम आदमी—अपनी बोली में जीवंत हो उठते हैं। उनके संवाद इतने यथार्थवादी और तीखे हैं कि वे समाज की नब्ज़ को पकड़ लेते हैं। उदाहरण के लिए, पगडंडियों का जमाना में एक पात्र का संवाद, “हमारी पगडंडियाँ तो वही हैं, बस अब उन पर चमचमाती गाड़ियाँ दौड़ रही हैं,” आधुनिकता और परंपरा के बीच की खाई को उजागर करता है। उनके संवादों में हास्य का ऐसा पुट था, जो पाठकों को ठहाके लगाने पर मजबूर करता था, लेकिन साथ ही एक गहरी चोट भी छोड़ता था। उनकी रचनाएँ ऐसी थीं, जैसे कोई चाय की चुस्की के बीच मज़ेदार किस्सा सुनाए, लेकिन उसमें गहरी सच्चाई छिपी हो।
सामाजिक समस्याओं का चित्रण: विश्व कल्याण का आह्वान
परसाई की रचनाएँ समाज का नंगा आईना हैं। उन्होंने भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, लैंगिक असमानता, और नैतिक पतन जैसी समस्याओं को बेबाकी से उजागर किया। उनकी लेखनी में सामाजिक सुधार की भावना थी, जो विश्व कल्याण और नागरिक उत्थान की दिशा में एक कदम थी। परसाई ने समाज के ढोंग—चाहे वह धार्मिक पाखंड हो, राजनेताओं की चिकनी-चुपड़ी बातें, या सामाजिक रूढ़ियाँ—को हास्य और तंज के ज़रिए बेनकाब किया। उनकी रचनाएँ पाठकों को आत्म-चिंतन के लिए मजबूर करती थीं, जो समाज में सकारात्मक बदलाव की नींव रखती थीं। उनकी लेखनी में करुणा और मानवता की पुकार थी, जो आज के डिजिटल युग में, जब सोशल मीडिया पर नफरत और झूठ का बाज़ार गर्म है, और भी ज़रूरी है। परसाई ने न केवल समस्याओं को उजागर किया, बल्कि हास्य के ज़रिए उनके समाधान की दिशा भी दिखाई। उनकी रचनाएँ एक तरह का सामाजिक जागरण थीं, जो पाठकों को सोचने और बदलने की प्रेरणा देती थीं।
चार प्रमुख रचनाएँ और उनके रसीले उदाहरण
परसाई की रचनाएँ हिंदी साहित्य की मसालेदार थाली हैं। उनकी प्रमुख पुस्तकों में शामिल हैं: विकलांग श्रद्धा का दौर, सदाचार का तावीज़, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, पगडंडियों का जमाना, हंसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, बेईमानी की परत, शिकायत मुझे भी है, और पूछो परसाई से। आइए, चार रचनाओं के ज़बरदस्त उदाहरणों के ज़रिए उनकी लेखनी का स्वाद चखें।
1. विकलांग श्रद्धा का दौर (व्यंग्य-निबंध संग्रह, 1985)
विषय: धार्मिक पाखंड, अंधविश्वास, और सामाजिक ढोंग।
इस संग्रह का निबंध “पंडितजी की मोटर” एक चालाक साधु की कहानी है, जो धर्म के नाम पर भक्तों को लूटता है। पंडितजी अपनी चमचमाती मोटर को “दिव्य रथ” बताकर चढ़ावा वसूलते हैं, लेकिन परसाई उनके ढोंग को हास्य के तड़के के साथ उजागर करते हैं। वे लिखते हैं, “श्रद्धा अब विकलांग हो चुकी है, क्योंकि वह तर्क की बैसाखी के बिना एक कदम भी नहीं चल सकती।” यह निबंध धार्मिक अंधविश्वास और आधुनिकता के दुरुपयोग पर करारा प्रहार करता है। आज के संदर्भ में, यह रचना हमें सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले बाबाओं, ज्योतिषियों, और उनके “चमत्कारों” के खिलाफ़ सतर्क करती है। जब लोग व्हाट्सएप पर “अनघट अनहोनी” के डर से फॉरवर्ड बटन दबा रहे हैं, परसाई हमें तर्क और विज्ञान की रोशनी दिखाते हैं।
2. सदाचार का तावीज़ (व्यंग्य-निबंध संग्रह, 1978)
विषय: भ्रष्टाचार, नैतिकता का ढोंग, और सामाजिक पाखंड।
इस संग्रह का शीर्षक निबंध “सदाचार का तावीज़” एक भ्रष्ट सरकारी बाबू की कहानी है, जो बाहर से नैतिकता का चोला ओढ़ता है, लेकिन अंदर से रिश्वत का भूखा है। वह अपने भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए “सदाचार का तावीज़” पहनता है, जो उसकी अंतरात्मा को बहलाता है। परसाई लिखते हैं, “यह तावीज़ सदाचार का नहीं, बेईमानी को ढँकने का है।” यह निबंध भ्रष्टाचार और नैतिकता के खोखले दावों पर तीखा तंज है। आज के संदर्भ में, यह रचना हमें भ्रष्टाचार के उन चेहरों की याद दिलाती है, जो “साफ़ छवि” के नकाब में छिपे हैं। जब न्यूज़ चैनलों पर भ्रष्ट नेताओं के “सेवा कार्य” की तारीफ़ हो रही हो, परसाई हमें उनके असली चेहरों को पहचानने की हिम्मत देते हैं।
3. ठिठुरता हुआ गणतंत्र (व्यंग्य-निबंध संग्रह, 1980)
विषय: लोकतंत्र की कमियाँ, राजनीतिक भ्रष्टाचार, और सामाजिक असमानता।
इस संग्रह का शीर्षक निबंध “ठिठुरता हुआ गणतंत्र” भारत के लोकतंत्र की विडंबनाओं को चटपटे अंदाज़ में उजागर करता है। परसाई एक गाँव की कहानी सुनाते हैं, जहाँ गणतंत्र दिवस पर सरकारी अधिकारी बड़े-बड़े भाषण देते हैं, लेकिन गाँव में न बिजली है, न पानी, न स्कूल। बच्चे ठंड में ठिठुरते हैं, और अधिकारी गरम कोट में बैठकर “राष्ट्र की प्रगति” की बात करते हैं। परसाई लिखते हैं, “हमारा गणतंत्र ठिठुर रहा है, क्योंकि उसे गर्मी देने वाली जनता की आवाज़ को कुचल दिया गया है।” यह निबंध लोकतंत्र के खोखलेपन और आम आदमी की उपेक्षा पर करारा तंज है। आज के संदर्भ में, यह रचना हमें लोकतंत्र में जनता की भागीदारी और सरकारी जवाबदेही की ज़रूरत की याद दिलाती है। जब संसद में जनता की समस्याओं की बजाय सियासी ड्रामे चल रहे हों, परसाई हमें सच्चे लोकतंत्र की तलाश की प्रेरणा देते हैं।
4. पगडंडियों का जमाना (व्यंग्य-निबंध संग्रह, 1972)
विषय: आधुनिकता और परंपरा का टकराव, सामाजिक बदलाव।
इस संग्रह का शीर्षक निबंध “पगडंडियों का जमाना” गाँव और शहर के बीच बदलते रिश्तों की चटपटी कहानी है। परसाई एक गाँववाले की कहानी सुनाते हैं, जो शहर की चमक-दमक से लालायित होकर अपनी पगडंडियों को भूल जाता है। शहर में वह नौकरी, रिश्ते, और सम्मान सब खो देता है, और अंत में उसे अपनी पगडंडियों की कीमत समझ आती है। परसाई लिखते हैं, “पगडंडियाँ भले ही पुरानी हों, लेकिन वे हमें हमारी जड़ों से जोड़ती हैं।” यह निबंध आधुनिकता की अंधी दौड़ और ग्रामीण मूल्यों की उपेक्षा पर तीखा तंज है। आज के संदर्भ में, यह रचना हमें गाँवों की उपेक्षा और शहरीकरण के दुष्प्रभावों पर सवाल उठाने की प्रेरणा देती है। जब स्मार्ट सिटी के सपने दिखाए जा रहे हों, लेकिन गाँव खाली हो रहे हों, परसाई हमें अपनी जड़ों की ओर लौटने का न्योता देते हैं।
अन्य रचनाएँ और समाज पर प्रभाव
परसाई की अन्य रचनाएँ, जैसे हंसते हैं रोते हैं, जैसे उनके दिन फिरे, रानी नागफनी की कहानी, तट की खोज, बेईमानी की परत, शिकायत मुझे भी है, और पूछो परसाई से, भी सामाजिक और मानवीय मुद्दों को उजागर करती हैं।
हंसते हैं रोते हैं (कहानी संग्रह, 1960): इस संग्रह की कहानी “एक रस्सी के टुकड़े” एक गरीब मज़दूर की कहानी है, जो अपनी रस्सी के टुकड़े के लिए लड़ता है, क्योंकि वह उसकी रोज़ी-रोटी का आधार है। यह कहानी गरीबी और सामाजिक असमानता को मर्मस्पर्शी ढंग से दर्शाती है। यह हमें असमान आर्थिक विकास और मज़दूरों के अधिकारों की वकालत करने की प्रेरणा देती है। जब गिग इकॉनमी में डिलीवरी बॉय और मजदूरों का शोषण हो रहा हो, परसाई उनकी आवाज़ बनते हैं।
जैसे उनके दिन फिरे (कहानी संग्रह, 1965): इस संग्रह की कहानी “निंदिया चोर” एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जो समाज की गलतियों और अन्याय से परेशान होकर अपनी नींद खो देता है। यह कहानी मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक दबावों को उजागर करती है। यह हमें मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और तनावग्रस्त युवाओं की मदद की ज़रूरत की याद दिलाती है।
रानी नागफनी की कहानी (उपन्यास, 1972): यह उपन्यास एक औरत की कहानी है, जो पितृसत्तात्मक समाज की रूढ़ियों और शोषण के खिलाफ़ लड़ती है। परसाई ने इस उपन्यास में औरतों की पीड़ा और उनके विद्रोह को संवेदनशीलता से चित्रित किया। नारीवादी आंदोलन और लैंगिक समानता की लड़ाई से गहराई से जुड़ता है।
तट की खोज (उपन्यास, 1962): यह उपन्यास एक व्यक्ति की आत्म-खोज की यात्रा है, जो सामाजिक और नैतिक मूल्यों के बीच संतुलन तलाशता है। परसाई ने इस उपन्यास में व्यक्तिगत और सामाजिक ज़िम्मेदारियों के टकराव को दर्शाया। यह हमें करियर, परिवार, और नैतिकता के बीच संतुलन बनाने की प्रेरणा देता है।
बेईमानी की परत (व्यंग्य-निबंध, 1976): इस संग्रह का निबंध “बेईमानी की परत” एक भ्रष्ट व्यवसायी की कहानी है, जो अपनी बेईमानी को नैतिकता और “सामाजिक सेवा” के चोले में छिपाता है। यह हमें कॉर्पोरेट भ्रष्टाचार और CSR (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) के नाम पर होने वाले ढोंग पर सवाल उठाने की प्रेरणा देता है।
शिकायत मुझे भी है (व्यंग्य-निबंध, 1983): इस संग्रह का निबंध “शिकायत मुझे भी है” आम आदमी की रोज़मर्रा की शिकायतों को हास्य के साथ पेश करता है—चाहे वह सरकारी दफ्तरों की लालफीताशाही हो या पड़ोसी का शोर। यह हमें नौकरशाही और सामाजिक समस्याओं के खिलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत देता है।
परसाई की रचनाओं ने हिंदी साहित्य में व्यंग्य को एक नया मुकाम दिया। उनकी लेखनी ने सामाजिक जागरूकता, भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ाई, और मानवता की रक्षा के लिए आवाज़ उठाई। उनकी रचनाएँ पाठकों को हँसाने के साथ-साथ सोचने पर मजबूर करती थीं, जो समाज में सकारात्मक बदलाव की नींव रखती थीं। उनकी लेखनी ने न केवल हिंदी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि समाज को एक नई दृष्टि भी दी।
आज के दौर में परसाई क्यों? प्रासंगिकता का तड़का
हरिशंकर परसाई को पढ़ना आज केवल साहित्यिक स्वाद चखना नहीं; यह एक सामाजिक और नैतिक क्रांति का हिस्सा बनना है। उनकी रचनाएँ आज के डिजिटल युग में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, क्योंकि वे भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, लैंगिक असमानता, और नैतिक पतन जैसी समस्याओं को उजागर करती हैं। आइए, दस बिंदुओं में देखें कि परसाई आज क्यों ज़रूरी हैं:
भ्रष्टाचार का पर्दाफाश: सदाचार का तावीज़ और बेईमानी की परत भ्रष्टाचार के हर रूप को बेनकाब करते हैं। आज, जब भ्रष्टाचार सरकारी दफ्तरों से लेकर कॉर्पोरेट बोर्डरूम तक फैला है, परसाई हमें जवाबदेही और पारदर्शिता की माँग करने की हिम्मत देते हैं।
साम्प्रदायिकता का जवाब: परसाई की रचनाएँ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और नफरत की राजनीति पर तंज करती हैं। आज, जब सोशल मीडिया पर साम्प्रदायिक ज़हर फैलाया जा रहा है, परसाई हमें एकता, करुणा, और मानवता की सीख देते हैं।
लैंगिक समानता की पुकार: रानी नागफनी की कहानी और अन्य रचनाएँ औरतों की पीड़ा और उनके विद्रोह को दर्शाती हैं। आज के नारीवादी आंदोलन और लैंगिक समानता की लड़ाई में, परसाई की लेखनी एक मशाल की तरह रास्ता दिखाती है।
अंधविश्वास का खात्मा: विकलांग श्रद्धा का दौर धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास पर तीखा प्रहार करता है। आज, जब व्हाट्सएप और यूट्यूब पर “चमत्कारी उपाय” और बाबाओं का बोलबाला है, परसाई हमें तर्कशीलता और वैज्ञानिक सोच की प्रेरणा देते हैं।
लोकतंत्र की रक्षा: ठिठुरता हुआ गणतंत्र लोकतंत्र की कमियों और सत्ता के दुरुपयोग को उजागर करता है। आज, जब लोकतांत्रिक संस्थाएँ कमज़ोर हो रही हैं और जनता की आवाज़ दबाई जा रही है, परसाई हमें सच्चे लोकतंत्र के लिए लड़ने की प्रेरणा देते हैं।
सामाजिक असमानता पर प्रहार: हंसते हैं रोते हैं और जैसे उनके दिन फिरे गरीबी, मज़दूरी, और असमानता की कहानियाँ सुनाते हैं। आज, जब अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ रही है, परसाई हमें सामाजिक न्याय और समानता की वकालत करने की प्रेरणा देते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा: जैसे उनके दिन फिरे में मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक दबावों को संवेदनशीलता से दर्शाया गया है। आज, जब तनाव, डिप्रेशन, और बर्नआउट युवाओं की ज़िंदगी को प्रभावित कर रहे हैं, परसाई हमें मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और सहानुभूति की सीख देते हैं।
हास्य की ताकत: परसाई ने हास्य को सामाजिक सुधार का हथियार बनाया। आज के तनावपूर्ण और गंभीर दौर में, उनकी लेखनी हमें हँसते हुए समस्याओं का सामना करने और ज़िंदगी को हल्के-फुल्के अंदाज़ में जीने की प्रेरणा देती है।
ग्रामीण भारत की आवाज़: पगडंडियों का जमाना गाँवों की उपेक्षा और शहरीकरण के दुष्प्रभावों पर सवाल उठाता है। आज, जब गाँव खाली हो रहे हैं और किसान संकट में हैं, परसाई हमें ग्रामीण भारत की अहमियत और उसकी समस्याओं पर ध्यान देने की प्रेरणा देते हैं।
साहित्य का सामाजिक प्रभाव: परसाई की रचनाएँ साहित्य की सामाजिक परिवर्तन की ताकत को दर्शाती हैं। आज के डिजिटल युग में, जब सोशल मीडिया पर आवाज़ उठाना आसान है, परसाई हमें सच बोलने, बेबाकी से लिखने, और सकारात्मक बदलाव लाने की प्रेरणा देते हैं।
परसाई की मसालेदार दुनिया की झलक
तब की बात और थी (व्यंग्य-निबंध, 1969): इस संग्रह का निबंध “तब की बात और थी” पुराने ज़माने की सादगी और आज की बनावटी ज़िंदगी की तुलना करता है। परसाई एक बुज़ुर्ग की कहानी सुनाते हैं, जो पुराने दिनों की याद में खोया रहता है, लेकिन आज की दुनिया में उसे केवल धोखा मिलता है। यह हमें सोशल मीडिया की दिखावटी ज़िंदगी और असली रिश्तों की कमी पर सवाल उठाने की प्रेरणा देता है।
भूत के पाँव पीछे (व्यंग्य-निबंध, 1973): इस संग्रह का निबंध “भूत के पाँव पीछे” अंधविश्वास और डर के व्यापार पर तंज करता है। परसाई एक तांत्रिक की कहानी सुनाते हैं, जो भूत-प्रेत के डर से लोगों को ठगता है। यह हमें ऑनलाइन ज्योतिष और तांत्रिक विज्ञापनों के जाल से सावधान रहने की सीख देता है।
पूछो परसाई से (साक्षात्कार, 1986): इस संग्रह में परसाई अपने विचारों, साहित्य, और समाज पर खुलकर बात करते हैं। उनकी बेबाकी और हास्य का अंदाज़ हर जवाब में झलकता है। यह हमें सच बोलने, सवाल उठाने, और बेबाकी से अपनी राय रखने की हिम्मत देता है।
परसाई की कलम—हास्य का मसाला, सत्य का स्वाद
चाय की प्याली अब खाली हो चुकी होगी, लेकिन परसाई के शब्दों का तीखा तड़का और हास्य का ज़ायका अभी भी आपके ज़हन में ताज़ा है। उनकी रचनाएँ—विकलांग श्रद्धा का दौर, सदाचार का तावीज़, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, पगडंडियों का जमाना—हिंदी साहित्य की मसालेदार थाली हैं, जो हर पाठक के लिए कुछ न कुछ परोसती हैं। परसाई को पढ़ना एक ज़बरदस्त सैर है—हँसी-मज़ाक, तंज, और गहरी सच्चाई की गलियों से गुज़रने की सैर। यह एक ऐसा अनुभव है, जो हमें हमारे समाज के पाखंडों, ज़िम्मेदारियों, और बदलाव की संभावनाओं से रूबरू कराता है।
आज, जब भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, और असमानता समाज को खोखला कर रहे हैं, परसाई की लेखनी एक मज़ेदार मिर्ची की तरह है, जो आँखों में आँसू लाती है, लेकिन ज़हन को ताज़गी देती है। वे हमें सिखाते हैं कि हास्य और सत्य का मेल समाज को बदलने का सबसे कारगर हथियार है। उनकी रचनाएँ हमें करुणा, तर्कशीलता, और सुधार की राह दिखाती हैं। तो, चाय की अगली चुस्की लें, और परसाई की मसालेदार दुनिया में गोता लगाएँ। उनकी कलम का हर शब्द एक तीखा तीर है, जो पाखंड के किले को भेदता है, और हर सवाल एक चिंगारी, जो हमारे विवेक को जगाती है। परसाई आज भी हमें सिखाते हैं कि हँसते हुए सच कहना ही सबसे बड़ी क्रांति है।