रचनाकारों के साथ चाय की चुस्की : लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ
SIPPING TEA WITH CREATORS
Chaifry
7/17/20251 min read


सुबह की नरम धूप, खिड़की से आती हल्की हवा, और गर्म चाय का प्याला—इस शांत क्षण में अगर लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ की लेखनी का साथ मिले, तो यह अनुभव साहित्यिक आनंद के साथ-साथ असम की संस्कृति, परंपराओं, और सामाजिक चेतना की गहरी यात्रा कराता है। लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ (1864-1938), जिन्हें "रसराज" और "साहित्य रथी" की उपाधि से नवाज़ा गया, आधुनिक असमिया साहित्य के पथप्रदर्शक और "असमिया लघुकथा के जनक" हैं। असमिया साहित्य के रोमांटिक युग, जिसे "जोनाकी युग" के नाम से जाना जाता है, में उनकी रचनाएँ एक दीपक की तरह चमकीं। कविता, नाटक, उपन्यास, निबंध, कहानी, और व्यंग्य जैसी विभिन्न विधाओं में उनके योगदान ने असमिया साहित्य को नई पहचान दी।
आज के डिजिटल युग में, जब सोशल मीडिया की चकाचौंध और तेज़ रफ्तार ज़िंदगी का शोर है, लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ को पढ़ना क्यों जरूरी है? यह लेख उनकी लेखनी, वर्तनी, संवादों, और सामाजिक चित्रण के साथ उनकी रचनाओं के समाज पर प्रभाव को आज के संदर्भ में विश्लेषित करता है। उनकी चार प्रमुख कृतियों—पदुम कुँवरी, मोर जिबन सोंवरन, जयमती, और काम्यार कामिनी—के उदाहरणों के साथ, और कुछ अन्य रचनाओं के उल्लेख के साथ, हम देखेंगे कि उनकी लेखनी आज भी प्रासंगिक क्यों है और हर पाठक को उनकी रचनाओं में क्यों डूबना चाहिए।
लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ की लेखनी: असमिया संस्कृति का आलोक
बेजबरुआ की लेखनी असम की संस्कृति, परंपराओं, और सामाजिक चेतना का जीवंत चित्रण करती है। उनकी रचनाएँ असम के लोगों की आकांक्षाओं, संघर्षों, और सांस्कृतिक धरोहर को उजागर करती हैं। उनकी वर्तनी में असम की ग्रामीण और शहरी ज़िंदगी की सादगी और गहराई समाई है। उनकी भाषा में संस्कृतनिष्ठ जटिलता नहीं, बल्कि लोकजीवन की सहजता और भावनाओं की गहराई है। चाहे मोर जिबन सोंवरन में उनकी व्यक्तिगत यात्रा हो, या जयमती में देशभक्ति और बलिदान की भावना, उनकी लेखनी पाठक को असम की सांस्कृतिक गहराई से जोड़ती है।
उनके संवाद स्वाभाविक और प्रभावशाली हैं, जो पात्रों के चरित्र और सामाजिक परिवेश को उभारते हैं। उदाहरण के लिए, जयमती में जयमती का संवाद, "मेरे देश की भलाई के लिए मैं जीवन समर्पित करती हूँ," देशभक्ति को दर्शाता है और आज के दौर में भी व्यक्तिगत बलिदान व सामाजिक कल्याण की प्रेरणा देता है। उनकी लेखनी में हास्य, व्यंग्य, और गंभीरता का अनूठा मेल है, जो पाठकों को हँसाता, रुलाता, और सोचने पर मजबूर करता है।
वर्तनी और संवादों की जीवंतता
बेजबरुआ की वर्तनी असमिया भाषा की मिठास और लचीलापन लिए हुए है। उनकी रचनाएँ आम बोलचाल की भाषा में लिखी गई हैं, जो ग्रामीण और शहरी पाठकों को आकर्षित करती हैं। उनके संवाद इतने स्वाभाविक हैं कि पात्र जीवित हो उठते हैं। उनकी व्यंग्य रचनाएँ, जैसे- लिटिकाइ और खनिकर, सामाजिक कुरीतियों पर हहास्य के साथ तीखा प्रहार करती हैं। उदाहरण के लिए, खनिकर में एक पात्र का कथन, "मनुष्य के मन में धर्म नहीं, धन का लोभ ही है," आज के उपभोक्तावादी समाज पर लागू होता है। उनकी भाषा में लोकगीतों, भक्ति गीतों, और गाथा गीतों का प्रभाव है, जो असमिया साहित्य को नई ऊँचाई देता है।
सामाजिक समस्याओं का चित्रण
बेजबरुआ ने अपनी रचनाओं में सामाजिक समस्याओं—जातिवाद, अंधविश्वास, सामाजिक असमानता, और उपनिवेशवाद—को उजागर किया। उनकी लेखनी में असम के लोगों की आकांक्षाएँ और सामाजिक चुनौतियाँ जीवंत हो उठती हैं। उन्होंने समाज को जागरूक करने और सुधार लाने का प्रयास किया। उनकी रचनाएँ विश्व कल्याण और नागरिक उत्थान का संदेश देती हैं।
1: पदुम कुँवरी
पदुम कुँवरी (1905), बेजबरुआ का ऐतिहासिक उपन्यास है, जो असम के अहोम साम्राज्य की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इसमें ऐतिहासिक घटनाओं को कथानक के साथ जोड़कर असम की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को उजागर किया गया है। नायिका पदुम कुँवरी का संवाद, "मेरे देश की स्वतंत्रता के लिए मैं किसी भी बलिदान के लिए तैयार हूँ," देशभक्ति और आत्मोत्सर्ग की भावना को दर्शाता है। यह उपन्यास वैश्वीकरण के दौर में, जब क्षेत्रीय पहचान खो रही है, हमें अपनी सांस्कृतिक धरोहर और इतिहास से जोड़ता है।
2: मोर जिबन सोंवरन
मोर जिबन सोंवरन (1937), बेजबरुआ की आत्मकथा, उनके जीवन, संघर्षों, और असमिया साहित्य के प्रति समर्पण की कहानी है। इसमें उन्होंने अपने बचपन, शिक्षा, और साहित्यिक यात्रा को बेबाकी से उजागर किया। एक प्रसंग में वह लिखते हैं, "असमिया भाषा और साहित्य की उन्नति के लिए मैंने अपना जीवन समर्पित किया है।" यह पंक्ति उनके साहित्यिक और सामाजिक योगदान को दर्शाती है। यह आत्मकथा आज के युवाओं के लिए प्रेरणादायक है, क्योंकि यह व्यक्तिगत समर्पण और मेहनत से समाज में बदलाव की सीख देता है।
3: जयमती
जयमती (1915), बेजबरुआ का देशभक्ति पूर्ण नाटक है, जो अहोम राजकुमारी जयमती की कहानी पर आधारित है। जयमती ने अपने पति और देश के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया। नाटक में जयमती का संवाद, "मेरे देश के लोगों की भलाई के लिए मैं सब कुछ त्याग सकती हूँ," आज भी प्रेरणादायक है। यह नाटक सामाजिक और राष्ट्रीय कल्याण के लिए बलिदान की भावना सिखाता है। आज के दौर में, जब स्वार्थ और व्यक्तिवाद हावी है, जयमती सामुदायिक हित के लिए काम करने की प्रेरणा देता है।
लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ की अन्य रचनाएँ और समाज पर प्रभाव
काम्यार कामिनी (1920), बेजबरुआ का सामाजिक उपन्यास है, जिसमें उन्होंने अंधविश्वास और लैंगिक असमानता जैसी कुरीतियों पर तीखा प्रहार किया है। उपन्यास में एक पात्र का कथन, "अंधविश्वास से समाज का विनाश होता है," आज भी प्रासंगिक है। यह उपन्यास वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सामाजिक सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
उनकी व्यंग्य रचनाएँ, जैसे- लिटिकाइ और खनिकर, सामाजिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर हास्य के साथ प्रहार करती हैं। लिटिकाइ में एक भ्रष्ट अधिकारी की कहानी के माध्यम से सामाजिक पाखंड को उजागर किया गया है। उनकी पंक्ति, "लोगों के मुँह में धर्म की बात, लेकिन हृदय में लोभ," आज के भ्रष्टाचार और पाखंड से भरे समाज पर लागू होती है।
बेजबरुआ ने असमिया भाषा और साहित्य के विकास के लिए कई कदम उठाए। उन्होंने 1888 में "असमिया भाषा उन्नति साधनी सभा" की स्थापना की और 1889 में जोनाकी पत्रिका शुरू की, जिसने असमिया साहित्य को नई दिशा दी। इसके अलावा, उन्होंने 20 वर्षों तक बांही पत्रिका का संपादन किया, जिसने असमिया लेखकों को मंच प्रदान किया। उनकी रचनाएँ सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा थीं, जिसने असम के लोगों में अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति गर्व और जागरूकता पैदा की।
आज हम लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ को क्यों पढ़ें?
आज का युग वैश्वीकरण, तकनीक, और सामाजिक परिवर्तन का है, लेकिन साथ ही सांस्कृतिक पहचान का क्षरण, सामाजिक असमानता, और अंधविश्वास भी मौजूद हैं। बेजबरुआ की रचनाएँ इन मुद्दों को समझने और समाधान की दिशा में सोचने का रास्ता दिखाती हैं। उनकी लेखनी सामाजिक जिम्मेदारी, सांस्कृतिक गर्व, और मानवता के महत्व को रेखांकित करती है।
1. सांस्कृतिक पहचान और जड़ों से जुड़ाव
बेजबरुआ की रचनाएँ, जैसे- पदुम कुँवरी और जयमती, असम के गौरवशाली अतीत को जीवंत करती हैं। वैश्वीकरण के दौर में, जब क्षेत्रीय भाषाएँ और संस्कृतियाँ खतरे में हैं, उनकी रचनाएँ हमें अपनी जड़ों से जोड़ती हैं। वे हमें अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व करना सिखाती हैं।
2. सामाजिक सुधार और जागरूकता
बेजबरुआ की रचनाएँ अंधविश्वास, जातिवाद, और भ्रष्टाचार जैसी कुरीतियों पर प्रहार करती हैं। खनिकर और काम्यार कामिनी सामाजिक सुधार और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता को उजागर करते हैं। आज, जब अंधविश्वास और सामाजिक असमानता अभी भी मौजूद हैं, उनकी रचनाएँ हमें इनके खिलाफ आवाज़ उठाने की प्रेरणा देती हैं।
3. हास्य और व्यंग्य की शक्ति
लिटिकाइ और खनिकर जैसी व्यंग्य रचनाएँ सामाजिक और प्रशासनिक खामियों को हास्य के साथ उजागर करती हैं। उनकी यह शैली आज के सोशल मीडिया युग में प्रासंगिक है, जहाँ व्यंग्य और मीम्स के माध्यम से सामाजिक मुद्दों पर चर्चा होती है। उनकी रचनाएँ सिखाती हैं कि हास्य समाज को जागरूक करने का शक्तिशाली हथियार हो सकता है।
4. देशभक्ति और सामुदायिक हित
जयमती और पदुम कुँवरी देशभक्ति और सामुदायिक हित की भावना को प्रेरित करती हैं। आज के दौर में, जब व्यक्तिवाद और स्वार्थ हावी है, उनकी रचनाएँ सामुदायिक कल्याण और राष्ट्रीय हित के लिए काम करने की प्रेरणा देती हैं। वे हमें व्यक्तिगत बलिदान की महत्ता सिखाती हैं।
5. भाषा और साहित्य का संरक्षण
बेजबरुआ ने असमिया भाषा और साहित्य के विकास के लिए जीवन भर काम किया। उनकी पत्रिकाएँ जोनाकी और बांही ने असमिया लेखकों को मंच प्रदान किया। आज, जब क्षेत्रीय भाषाएँ वैश्विक भाषाओं के दबाव में कमज़ोर पड़ रही हैं, उनकी रचनाएँ हमें अपनी भाषा और साहित्य को संरक्षित करने की प्रेरणा देती हैं।
समाज पर प्रभाव और प्रासंगिकता
बेजबरुआ की रचनाओं ने असमिया साहित्य और समाज पर गहरा प्रभाव डाला। उनकी लेखनी ने असम के लोगों में अपनी भाषा, संस्कृति, और पहचान के प्रति गर्व पैदा किया। जोनाकी पत्रिका ने असमिया साहित्य के रोमांटिक युग को जन्म दिया, जिसने नए लेखकों को प्रेरित किया। उनकी रचनाएँ सामाजिक और सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा थीं। पदुम कुँवरी, जयमती, और काम्यार कामिनी असम के इतिहास और संस्कृति को जीवंत करती हैं, जबकि मोर जिबन सोंवरन उनके व्यक्तिगत और साहित्यिक योगदान की गहराई से परिचित कराती है। उनकी व्यंग्य रचनाएँ सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करती हैं। उनकी लेखनी ने असमिया समाज में जागरूकता, शिक्षा, और सुधार की भावना को बढ़ावा दिया।
चाय के साथ बेजबरुआ का साथ
चाय की चुस्की के साथ लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ की रचनाएँ पढ़ना एक अनूठा अनुभव है, जो हमें असम की सांस्कृतिक धरोहर, सामाजिक चेतना, और मानवता की गहराइयों में ले जाता है। उनकी रचनाएँ—पदुम कुँवरी, मोर जिबन सोंवरन, जयमती, और काम्यार कामिनी—आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं, जितनी अपने समय में थीं। उनकी लेखनी सांस्कृतिक पहचान, सामाजिक सुधार, हास्य की शक्ति, देशभक्ति, और भाषा के संरक्षण की प्रेरणा देती है।
आज के डिजिटल युग में, जब हम अपनी जड़ों और संवेदनाओं से दूर होते जा रहे हैं, बेजबरुआ की लेखनी हमें अपनी संस्कृति, भाषा, और मानवता से जोड़ती है। उनकी रचनाएँ सिखाती हैं कि साहित्य केवल कहानियाँ और कविताएँ नहीं, बल्कि एक बेहतर समाज और इंसान बनने की प्रेरणा हैं। तो, अगली बार जब आप चाय का प्याला उठाएँ, लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ की किताब खोलें, और उनकी लेखनी के जादू में खो जाएँ। उनकी हर पंक्ति, हर शब्द, और हर कहानी आपको अपनी जड़ों और समाज के प्रति जिम्मेदारी का अहसास कराएगी।