रचनाकारों के साथ चाय की चुस्की: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
SIPPING TEA WITH CREATORS
Chaifry
9/6/20251 min read


चाय का एक घूँट लेते ही जैसे मन में गाँव की गलियों की ठंडी हवा और शहर की भागदौड़ की गर्मी एक साथ समा जाए, वैसा ही अहसास है सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की लेखनी का। उनकी कविताएँ, कहानियाँ और नाटक जैसे ज़िंदगी की सच्चाइयों को पकड़कर हमें आईना दिखाते हैं। ये सिर्फ़ शब्द नहीं, बल्कि समाज को जगाने और इंसानियत को सहेजने का ज़रिया हैं। ‘रचनाकारों के साथ चाय की चुस्की’ शृंखला के उन्नीसवें लेख में, आइए, सर्वेश्वर की उस दुनिया में कदम रखें, जो हमें हँसाती है, रुलाती है और सोचने पर मजबूर करती है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (15 सितंबर 1927 - 23 सितंबर 1983) हिंदी साहित्य के एक ऐसे रचनाकार थे, जिन्होंने कविता, कहानी, नाटक और बाल साहित्य के ज़रिए समाज के हर कोने को छुआ।
उत्तर प्रदेश के बस्ती में जन्मे सर्वेश्वर ने अपनी रचनाओं में वेदना, करुणा और रहस्यमयी भावनाओं को इस तरह पिरोया कि पाठक उनकी गहराई में खो जाता है। खूँटियों पर टंगे लोग, बकरी, अंधेरे पर अंधेरा, काठ की घंटियाँ और सोया हुआ जल जैसी कृतियों ने उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार जैसे सम्मान दिलाए। उनकी लेखनी सामाजिक असमानता, भ्रष्टाचार और शोषण पर करारा प्रहार करती थी, साथ ही इंसानियत को जगाने की कोशिश करती थी। इस लेख में, हम उनकी लेखनी, भाषा-शैली, संवादों और सामाजिक चित्रण को खोजेंगे, उनकी पाँच प्रमुख रचनाओं के चार-चार उदाहरणों के साथ। साथ ही, यह समझेंगे कि आज के डिजिटल दौर में सर्वेश्वर क्यों ज़रूरी हैं और नए पाठकों को उन्हें क्यों पढ़ना चाहिए। तो, चाय का मग उठाइए और सर्वेश्वर की साहित्यिक गलियों में चल पड़िए!
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना: समाज का कवि, इंसानियत का पैरोकार
सर्वेश्वर का जन्म 15 सितंबर 1927 को बस्ती, उत्तर प्रदेश में एक साधारण परिवार में हुआ। उनके पिता विश्वेश्वर दयाल सक्सेना और माँ प्रभावती देवी ने उन्हें ज़मीन से जुड़े रहने की सीख दी। बस्ती में शुरुआती पढ़ाई के बाद, उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. और एम.ए. किया। नौकरी की शुरुआत शिक्षक और सरकारी कर्मचारी के रूप में की, लेकिन 1964 में ‘अज्ञेय’ के बुलावे पर दिल्ली आकर दिनमान पत्रिका में उप-संपादक बने। बाद में वे पराग बाल पत्रिका के संपादक रहे, और बच्चों के लिए साहित्य रचने में उनका योगदान अनमोल रहा। 1983 में खूँटियों पर टंगे लोग के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला, लेकिन उसी साल 23 सितंबर को दिल्ली में उनका निधन हो गया। उनकी लेखनी आज भी हमारे बीच ज़िंदा है।
सर्वेश्वर तीसरा सप्तक के प्रमुख कवियों में से एक थे, जिन्होंने नई कविता आंदोलन को नई दिशा दी। उनकी रचनाएँ सामाजिक यथार्थ, विद्रोह और करुणा का मिश्रण थीं। उन्होंने मज़दूरों, किसानों और आम लोगों की आवाज़ को बुलंद किया, और भ्रष्टाचार, पाखंड और शोषण पर तीखे सवाल उठाए। उनकी लेखनी ने स्वतंत्रता के बाद के भारत में सामाजिक चेतना को जगाने में बड़ा योगदान दिया।
लेखनी, भाषा-शैली और संवाद: सर्वेश्वर का साहित्यिक जादू
लेखनी: सच्चाई का आलम, इंसानियत का रंग
सर्वेश्वर की लेखनी एक बगावत थी, जो समाज की ऊपरी चमक को छीलकर उसकी सच्चाई को सामने लाती थी। उनकी कविताएँ, जैसे खूँटियों पर टंगे लोग, मेहनतकशों की ज़िंदगी की तस्वीर खींचती थीं। बकरी नाटक में उन्होंने नेताओं के झूठे वादों और गांधीवादी आदर्शों के दुरुपयोग को बेनकाब किया। अंधेरे पर अंधेरा में गाँवों की गरीबी और शोषण को उजागर किया। उनकी रचनाएँ सिर्फ़ साहित्य नहीं थीं, बल्कि समाज को बदलने का एक न्योता थीं। उनकी लेखनी में वेदना और रहस्यवाद का भाव था, जो पाठकों को सोचने और महसूस करने पर मजबूर करता था।
भाषा-शैली: गाँव की बोली, शहर की गूँज
सर्वेश्वर की भाषा ऐसी थी, जैसे कोई गाँव का दोस्त शहर की चौपाल पर अपनी बात रख रहा हो। उनकी हिंदी में खड़ी बोली की सादगी थी, जिसमें ग्रामीण और शहरी ज़िंदगी का मेल था। खूँटियों पर टंगे लोग में वे लिखते हैं: “खूँटियों पर टंगे लोग, मेहनत की रोटी खोजते हैं।”
यह पंक्ति मेहनतकशों की बेबसी को बयाँ करती है। उनकी शैली में व्यंग्य और हास्य का पुट था, जो गंभीर मुद्दों को हल्के अंदाज़ में पेश करता था। इब्नबतूता का जूता में बच्चों के लिए लिखी उनकी कविताएँ इतनी सरल थीं कि बच्चे और बड़े दोनों को लुभाती थीं। उनकी भाषा में लोकगीतों की लय थी, जो पाठकों को बाँध लेती थी।
संवाद: ज़िंदगी की बातें
सर्वेश्वर के संवाद जैसे ज़िंदगी की सच्चाइयों को पकड़कर सामने लाते थे। बकरी में सत्यवीर और गाँव वालों के संवाद नेताओं की दोमुँही बातों को उजागर करते हैं: “गांधीवाद का ढोंग, गाँव को लूटता है।” अंधेरे पर अंधेरा में गाँव के पात्रों की बातचीत शोषण और गरीबी की कहानी कहती है। उनके संवादों में हास्य, तंज और संवेदना का मिश्रण था, जो पाठकों को भावनात्मक रूप से जोड़ता था। ये संवाद न सिर्फ़ कहानी को आगे बढ़ाते थे, बल्कि समाज की गहरी सच्चाइयों को भी सामने लाते थे।
सामाजिक समस्याओं का चित्रण: समाज को जगाने की कोशिश
सर्वेश्वर की रचनाएँ समाज की सच्चाइयों को उघाड़ने वाला दर्पण थीं। उन्होंने गरीबी, भ्रष्टाचार, शोषण और सामाजिक असमानता को अपनी लेखनी का आधार बनाया। खूँटियों पर टंगे लोग में उन्होंने मेहनतकशों की बेबसी को दिखाया, जो समाज की ऊपरी चमक के पीछे छिपी सच्चाई थी। बकरी में उन्होंने नेताओं के झूठे वादों पर तीखा व्यंग्य किया। अंधेरे पर अंधेरा में गाँवों की गरीबी और शोषण को सामने लाया। उनकी रचनाएँ करुणा और इंसानियत की बात करती थीं, जो समाज को बेहतर बनाने की प्रेरणा देती थीं। सर्वेश्वर की लेखनी ने हिंदी साहित्य को नई दिशा दी और सामाजिक चेतना को बढ़ावा दिया।
पाँच प्रमुख रचनाएँ और उदाहरण
सर्वेश्वर की रचनाएँ हिंदी साहित्य की धरोहर हैं। उनकी प्रमुख कृतियों में खूँटियों पर टंगे लोग, बकरी, अंधेरे पर अंधेरा, काठ की घंटियाँ और सोया हुआ जल शामिल हैं। आइए, इन पाँच रचनाओं के चार-चार उदाहरणों के ज़रिए उनकी लेखनी को समझें।
1. खूँटियों पर टंगे लोग (1972)
विषय: मेहनतकशों की बेबसी और सामाजिक असमानता।
1. “खूँटियों पर टंगे लोग, मेहनत की रोटी खोजते हैं।” – मेहनतकशों की बेबसी।
2. “शहर की चमक, गाँव का अंधेरा।” – सामाजिक असमानता।
3. “मज़दूर की पुकार, आसमान तक जाती है।” – शोषण का चित्रण।
4. “इंसानियत की खोज, खूँटियों से शुरू होती है।” – इंसानियत का संदेश।
यह काव्य संग्रह आज के वर्ग विभाजन और शोषण के दौर में प्रेरणा देता है।
2. बकरी (1974)
विषय: राजनीतिक पाखंड और गांधीवादी आदर्शों का दुरुपयोग।
1. “गांधीवाद का ढोंग, गाँव को लूटता है।” – राजनीतिक पाखंड।
2. “बकरी की बलि, गाँव की बेबसी।” – शोषण का चित्रण।
3. “सत्यवीर की बातें, झूठ का मुखौटा।” – नेताओं की सच्चाई।
4. “गाँव की पुकार, सत्ता को चुनौती देती है।” – सामाजिक जागरूकता।
यह नाटक आज के भ्रष्टाचार और पाखंड के दौर में सवाल उठाता है।
3. अंधेरे पर अंधेरा (1956)
विषय: ग्रामीण भारत की गरीबी और शोषण।
1. “गाँव की रात, अंधेरे से भरी।” – गरीबी का चित्रण।
2. “किसान की मेहनत, साहूकार की जेब में।” – शोषण का यथार्थ।
3. “बेबसी की कहानी, गाँव की ज़ुबानी।” – ग्रामीण पीड़ा।
4. “इंसानियत की लौ, अंधेरे में जलती है।” – उम्मीद का संदेश।
यह कहानी संग्रह ग्रामीण भारत की समस्याओं को आज भी प्रासंगिक बनाता है।
4. काठ की घंटियाँ (1959)
विषय: सामाजिक जागरूकता और इंसानियत।
1. “काठ की घंटियाँ, समाज को जगाती हैं।” – जागरूकता का आह्वान।
2. “शोषण की दीवारें, कविता से टूटती हैं।” – विद्रोह का स्वर।
3. “करुणा की लौ, दिल को रोशन करती है।” – करुणा का भाव।
4. “सच्चाई की खोज, कविता में मिलती है।” – सत्य का संदेश।
यह काव्य संग्रह सामाजिक बदलाव की प्रेरणा देता है।
5. सोया हुआ जल (1955)
विषय: सामाजिक यथार्थ और इंसानियत की खोज।
1. “सोया हुआ जल, गाँव की कहानी।” – सामाजिक यथार्थ।
2. “मज़दूर की मेहनत, जल में बहती है।” – शोषण का चित्रण।
3. “इंसानियत की खोज, जल से शुरू होती है।” – इंसानियत का संदेश।
4. “वेदना की लहरें, दिल को छूती हैं।” – वेदना का चित्रण।
यह उपन्यास सामाजिक यथार्थ और इंसानियत को आज भी प्रासंगिक बनाता है।
समाज पर प्रभाव: सर्वेश्वर की लेखनी का गहरा असर
सर्वेश्वर की रचनाएँ हिंदी साहित्य में एक ताज़ा हवा की तरह थीं। खूँटियों पर टंगे लोग ने मज़दूरों और किसानों की बेबसी को आवाज़ दी, जिसने सामाजिक चेतना को जगाया। बकरी ने नेताओं के पाखंड को बेनकाब कर पाठकों को आलोचनात्मक सोच दी। इब्नबतूता का जूता जैसी बाल कविताएँ बच्चों में साहित्य के प्रति रुचि जगाती थीं। दिनमान में उनके कॉलम चरचे और चरखे ने सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर गहरी टिप्पणियाँ कीं। उनकी लेखनी ने स्वतंत्रता के बाद के भारत में सामाजिक बदलाव की नींव रखी। सर्वेश्वर की रचनाएँ पाठकों को हँसाती थीं, रुलाती थीं और समाज की सच्चाइयों से रूबरू कराती थीं। उनकी लेखनी ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया और सामाजिक जागरूकता को बढ़ावा दिया।
आज के दौर में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना क्यों? उनकी प्रासंगिकता
सर्वेश्वर को पढ़ना आज सिर्फ़ साहित्य का आनंद लेना नहीं, बल्कि समाज को गहराई से समझने और बदलने का मौका है। उनकी रचनाएँ सामाजिक असमानता, भ्रष्टाचार और पाखंड जैसे मुद्दों को उजागर करती हैं, जो आज भी हमारे सामने हैं। डिजिटल युग में उनकी प्रासंगिकता को दस बिंदुओं में समझें:
1. सामाजिक असमानता: खूँटियों पर टंगे लोग मेहनतकशों की बेबसी को दिखाता है, जो आज के वर्ग विभाजन में प्रासंगिक है।
2. राजनीतिक पाखंड: बकरी नेताओं के झूठे वादों पर तंज कसता है, जो आज के भ्रष्टाचारग्रस्त माहौल में सवाल उठाता है।
3. ग्रामीण भारत की आवाज़: अंधेरे पर अंधेरा गाँवों की समस्याओं को सामने लाता है, जो आज की विकास नीतियों के लिए ज़रूरी है।
4. बाल साहित्य की ताकत: इब्नबतूता का जूता बच्चों में साहित्यिक रुचि जगाता है, जो डिजिटल युग में ज़रूरी है।
5. करुणा और संवेदना: उनकी रचनाएँ करुणा और वेदना को बयाँ करती हैं, जो आज के तनावपूर्ण दौर में राह दिखाती हैं।
6. नई कविता का योगदान: सर्वेश्वर ने नई कविता को नई दिशा दी, जो आज के लेखकों को प्रेरित करती है।
7. इंसानियत का पैगाम: उनकी रचनाएँ इंसानियत को बढ़ावा देती हैं, जो आज के विभाजनकारी माहौल में ज़रूरी है।
8. सामाजिक जागरूकता: काठ की घंटियाँ समाज को जगाने का आह्वान करता है।
9. रहस्यवाद की खोज: उनकी लेखनी में रहस्यमयी भाव आध्यात्मिक खोज को प्रेरित करते हैं।
10. साहित्यिक प्रेरणा: उनकी रचनाएँ साहित्यिक जागरूकता को बढ़ावा देती हैं, जो डिजिटल युग में ज़रूरी है।
अतिरिक्त उदाहरण: सर्वेश्वर की साहित्यिक गलियाँ
खूँटियों पर टंगे लोग: “खूँटियों पर टंगे लोग, मेहनत की रोटी खोजते हैं।” – मेहनतकशों की बेबसी।
बकरी: “गांधीवाद का ढोंग, गाँव को लूटता है।” – राजनीतिक पाखंड।
अंधेरे पर अंधेरा: “गाँव की रात, अंधेरे से भरी।” – गरीबी का चित्रण।
काठ की घंटियाँ: “काठ की घंटियाँ, समाज को जगाती हैं।” – जागरूकता का आह्वान।
सोया हुआ जल: “सोया हुआ जल, गाँव की कहानी।” – सामाजिक यथार्थ।
सर्वेश्वर की लेखनी, समाज का आलम
चाय का मग अब शायद खाली हो चुका होगा, लेकिन सर्वेश्वर के शब्दों की गूँज आपके मन में ताज़ा है। उनकी रचनाएँ—खूँटियों पर टंगे लोग, बकरी, अंधेरे पर अंधेरा, काठ की घंटियाँ, सोया हुआ जल—हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। सर्वेश्वर को पढ़ना एक सैर है—गाँव की पगडंडियों से लेकर शहर की चौपाल तक की सैर। यह एक ऐसा अनुभव है, जो हमें समाज की सच्चाइयों को समझने और बदलने की ताकत देता है।
आज, जब असमानता, भ्रष्टाचार और पाखंड समाज को खोखला कर रहे हैं, सर्वेश्वर की लेखनी एक रोशनी है। वे हमें बताते हैं कि साहित्य सिर्फ़ कहानियाँ और कविताएँ नहीं, बल्कि समाज को बदलने का हथियार है। उनकी रचनाएँ हमें साहस देती हैं, सत्य की राह दिखाती हैं और इंसानियत को सहेजने की सीख देती हैं। तो, चाय का अगला घूँट लें और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की दुनिया में उतरें। उनकी हर पंक्ति एक चिंगारी है, जो पाखंड को जलाती है, और हर शब्द एक नक्शा है, जो समाज को बेहतर बनाने की राह दिखाता है। सर्वेश्वर आज भी हमें सिखाते हैं कि साहित्य और समाज का रिश्ता ही असली बदलाव की कुंजी है।