सह्याद्रि की गूंज

CHAIFRY POT

Chaifry

6/10/2025

महाराष्ट्र के कोंकण में, जहां सह्याद्रि की हरी-भरी चोटियां बादलों को चूमती हैं, और कोहरा सुबह की हवा में तैरता है, वहां हर पत्थर, हर पेड़, और हर हवा की सांस में प्राचीन गाथाएं गूंजती हैं। सह्याद्रि के ये पहाड़ सिर्फ मिट्टी और चट्टान नहीं; ये उस धरती की धड़कन हैं, जहां कोंकण की हरियाली, गणपति उत्सव की रंग-बिरंगी धूम, और गांववालों की मेहनत एक अनमोल राग रचती है। कोंकण की हवा में मिट्टी की सोंधी गंध, बारिश में भीगते जंगलों की ताजगी, और समुद्र की लहरों की गर्जना समाई है। यह धरती वह जगह है, जहां सुबह की पहली किरणें सह्याद्रि की चोटियों पर सुनहरी रेखाएं खींचती हैं, और शाम को चौपाल पर हंसी-मजाक की गूंज हवा में तैरती है।

सह्याद्रि की गोद में बसे गांवों की सुबह एक जादुई नजारा है। सूरज की किरणें पर्वतों को नहलाती हैं, और खेतों में धान की बालियां हवा में लहराती हैं। किसान भोर में उठकर हल चलाते हैं, उनकी मेहनत की गंध मिट्टी के साथ मिलकर हवा में फैलती है। आंगनों में तुलसी को जल चढ़ाया जाता है, और मक्के की रोटी की खुशबू मिट्टी के घरों को महकाती है। बच्चे गलियों में मिट्टी से खेलते हैं, उनकी हंसी सह्याद्रि की चोटियों तक गूंजती है। बरगद का पेड़ चौपाल की शोभा बढ़ाता है, और उसकी छांव में बुजुर्ग पुराने दिनों की बातें करते हैं, उनकी आंखों में सह्याद्रि की यादें चमकती हैं। कोंकण की नदियां, जो पहाड़ों से उतरकर समुद्र की ओर बहती हैं, गांव की धड़कन बन जाती हैं। उनके किनारों पर औरतें कपड़े धोती हैं, और उनकी कंगनों की खनक नदी की लहरों के साथ ताल मिलाती है।

गणपति उत्सव में सह्याद्रि की गूंज और जीवंत हो उठती है। गांव रंग-बिरंगे पंडालों से सज जाते हैं, और ढोल-ताशों की थाप हवा में गूंजती है। गणपति बप्पा की मूर्तियां, जिनकी आंखें भक्तों के दिलों में उतर जाती हैं, पंडालों की शोभा बढ़ाती हैं। मोदक की मिठास हवा में घुलती है, और बच्चे पंडालों में दौड़ते हुए बप्पा के दर्शन करते हैं, उनकी आंखों में आश्चर्य चमकता है। औरतें नए वस्त्र पहनकर आरती गाती हैं, और उनकी आवाजें सह्याद्रि की हवा में तैरती हैं। गणपति उत्सव की रातों में गांव जगमगाते हैं, और ढोल की थाप हर दिल को नचाती है। मेलों में मिट्टी के खिलौने, बांस की टोकरियां, और भजियों की सोंधी खुशबू हर किसी को लुभाती है। युवा नाच-गान में डूब जाते हैं, और बुजुर्ग भक्ति में लीन होकर मंत्रों का जाप करते हैं।

कोंकण का समुद्र तट सह्याद्रि की गूंज का एक और रंग है। मछुआरों की नावें लहरों से जूझती हैं, और सूरज डूबते वक्त समुद्र को लाल रंग से रंग देता है। सुबह की पहली किरणों में मछुआरे अपनी नावें लेकर समुद्र की ओर निकलते हैं, और उनकी मेहनत की गंध मछलियों की ताजगी के साथ मिलती है। समुद्र तट पर मछलियों की मालाएं बिकती हैं, और उनकी चमक सूरज की रोशनी में झिलमिलाती है। कोंकण की हवा में नारियल के पेड़ों की सरसराहट और समुद्र की लहरों की गर्जना एक अनमोल संगीत रचती है। गांववाले समुद्र तट पर इकट्ठा होते हैं, और उनकी हंसी लहरों के साथ मिलकर सह्याद्रि की चोटियों तक पहुंचती है।

महाराष्ट्र की संस्कृति सह्याद्रि की गोद में पलती है। लोकनाट्य की रातें गांवों को जीवंत करती हैं, जब मशालों की रोशनी में पुरानी कथाएं नए रंगों में सजती हैं। औरतें खेतों में काम करते हुए मराठी लोकगीत गुनगुनाती हैं, और उनकी आवाजें हवा में तैरती हैं। मंदिरों में घंटियों की आवाज भक्ति का राग छेड़ती है, और हर घर में तुलसी का पौधा पवित्रता का प्रतीक बनकर खड़ा है। दशहरा की रात में रावण का पुतला जलता है, और गांववाले एकजुट होकर बुराई पर अच्छाई की जीत का उत्सव मनाते हैं। रक्षाबंधन में बहनें भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं, और मिठाइयों की मिठास हवा में घुलती है। सह्याद्रि की हवा इन त्योहारों को और रंगीन बनाती है, और हर उत्सव में कोंकण की आत्मा झलकती है।

सह्याद्रि की चोटियां गांव की हर धड़कन को अपनी गोद में समेटे हैं। गलियों में बच्चे पतंग उड़ाते हैं, और उनकी हंसी हवा में तैरती है। बुजुर्ग अपनी जवानी की यादों में खो जाते हैं, और उनकी आंखों में सह्याद्रि की चोटियों की चमक झलकती है। मंदिरों में भक्त अपनी मन्नतें मांगते हैं, और तालाबों में कमल के फूल सुबह की धूप में खिलते हैं। किसान बारिश की बूंदों का इंतजार करते हैं, और उनकी मेहनत खेतों को हरा-भरा रखती है। कोंकण की नदियां, जो सह्याद्रि से उतरती हैं, गांव की जिंदगी को सींचती हैं। उनके किनारों पर प्रेमी अपने सपनों को साझा करते हैं, और बच्चे मिट्टी के घर बनाते हैं।

सह्याद्रि की गूंज सिर्फ खूबसूरती और उत्सवों तक नहीं रुकती। कोंकण की धरती की चुनौतियां भी उतनी ही सच्ची हैं। पानी की कमी खेतों को बंजर छोड़ देती है, और किसानों की मेहनत को व्यर्थ कर देती है। बारिश की कमी से धान की फसलें मुरझा जाती हैं, और गांववाले प्रकृति की मार से जूझते हैं। युवा अपनी जड़ों को छोड़कर शहर की चमक की ओर भागते हैं, और गांव की गलियां सूनी हो जाती हैं। स्कूलों में टूटी बेंचों पर बच्चे बैठकर सपने देखते हैं, लेकिन शिक्षकों और किताबों की कमी उनके सपनों को धुंधला कर देती है। आधुनिकता का दबाव पुरानी परंपराओं को मिटाने की कोशिश करता है, और मंदिरों में अब पहले जैसी भीड़ नहीं जुटती। समुद्र तट पर मछलियां प्रदूषण की मार झेल रही हैं, और मछुआरों की नावें खाली लौटती हैं। बरगद के पेड़ के नीचे चौपाल की रौनक कम हो गई है, क्योंकि नई पीढ़ी मोबाइल की स्क्रीन में खोई रहती है।

सह्याद्रि की गूंज गांववालों की जिजीविषा में बस्ती है। बारिश की कमी के बावजूद किसान खेतों को सींचते हैं, और उनकी मेहनत फसलों को हरा-भरा रखती है। मछुआरे प्रदूषण के बावजूद समुद्र की ओर निकलते हैं, और उनकी हिम्मत लहरों से जूझती है। गणपति उत्सव में गांववाले एकजुट होकर बप्पा की भक्ति में डूब जाते हैं, और ढोल-ताशों की थाप उनकी मुश्किलों को भुला देती है। मेलों में फिर से रौनक लौटती है, और भजियों की खुशबू हवा में तैरती है। औरतें फिर से लोकगीत गुनगुनाती हैं, और बच्चे पतंग उड़ाते हैं। सह्याद्रि की चोटियां इन सब की गवाह बनती हैं, और उनकी गूंज गांव की आत्मा को जीवंत रखती है।

सह्याद्रि की हवा में मराठी की सहजता और भावनात्मक गहराई बसती है। खेतों में काम करने वाली औरतों के गीत, मंदिरों की घंटियों की आवाज, और समुद्र की लहरों की गर्जना एक अनमोल राग रचती हैं। गलियों में साइकिलों की घंटियां बजती हैं, और बच्चे गुब्बारों के पीछे दौड़ते हैं। मछुआरों की नावें लहरों से जूझती हैं, और उनकी मेहनत समुद्र की गहराई को थामती है। गणपति उत्सव की रातों में पंडालों की रोशनी आसमान को छूती है, और ढोल की थाप हर दिल को नचाती है। मेलों में मिट्टी के खिलौने और बांस की टोकरियां बिकती हैं, और भजियों की सोंधी खुशबू हवा में घुलती है।

सह्याद्रि की चोटियां हर धड़कन को अपनी गोद में समेटे हैं। नदियों के किनारे प्रेमी अपने सपनों को साझा करते हैं, और बच्चे मिट्टी के घर बनाते हैं। मंदिरों में भक्त अपनी मन्नतें मांगते हैं, और तालाबों में कमल के फूल खिलते हैं। किसान खेतों में पसीना बहाते हैं, और उनकी मेहनत फसलों को हरा-भरा रखती है। कोंकण की हरियाली सह्याद्रि की गूंज को और गहरा करती है, और हर पल में महाराष्ट्र की आत्मा झलकती है।

सह्याद्रि की गूंज हर पल में बसती है। सुबह की हवा में कोहरा तैरता है, और सूरज की किरणें खेतों को नहलाती हैं। दोपहर में बच्चे गलियों में खेलते हैं, और उनकी हंसी हवा में तैरती है। संध्या में गांववाले मंदिरों में इकट्ठा होते हैं, और घंटियों की आवाज भक्ति का राग छेड़ती है। गणपति उत्सव की रातों में पंडाल जगमगाते हैं, और ढोल की थाप हर दिल को नचाती है। मेलों में भजियों की खुशबू हवा में तैरती है, और बच्चे गुब्बारों के पीछे दौड़ते हैं। सह्याद्रि की चोटियां इन सब की गवाह बनती हैं, और उनकी गूंज गांव की आत्मा को जीवंत रखती है।

महाराष्ट्र की आत्मा सह्याद्रि की गूंज में बसती है। कोंकण की हरियाली, नदियों की लय, और समुद्र की गर्जना एक अनमोल चित्र रचती हैं। गणपति उत्सव की धूम, लोकनाट्य की रातें, और मेलों की रौनक महाराष्ट्र की धड़कन को जीवंत करती हैं। सह्याद्रि की हवा में मराठी की सहजता और गहराई बसती है, और हर ध्वनि में उसका जादू गूंजता है। यह धरती वह जगह है, जहां हर पल में एक धड़कन बसती है, और हर धड़कन में सह्याद्रि की गूंज सुनाई देती है।